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सीढ़ियाँ, माँ और उसका देवता

भगवानदास मोरवाल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6112
आईएसबीएन :9788126714797

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भगवानदास मोरवाल के इस संग्रह की पन्द्रह कहानियों में नई भाषा, नए प्रकार के चरित्रों और कथा-स्थितियों की प्रचुरता है...

Sidhiyan Maan Aur Uska Devta -A Hindi Book by Bhagwandas Morwal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी कहानियों की दुनिया में नए प्रकार की सामाजिकता का प्रवेश तेज़ी से हो रहा है। समाज के ऐसे-ऐसे अंश साहित्य में अपनी जगह माँग रहे हैं जिनके बारे में कभी चर्चा तक नहीं होती थी। पहले ऐसे अँधेरे कोने के बारे में कोई रचना आ जाती थी तो उसे अनूठा मान लिया जाता था। आज वैसे गुमनाम कोने के बारे में लिखने वालों की तादाद ब़ढ़ी है। और तो और वे भी गुमनाम कोने खुद लिखने-बोलने भी लगे हैं। तो भगवान मोरवाल ऐसे अँधेरे बन्द कोनों को रोशन करने और उन्हें जीवन्त बनाने के लिए जाने जाते हैं। हिन्दी कहानी को अपने विरल अनुभवों से समृद्ध कहानी को अपने विरल अनुभवों से समृद्ध करनेवाले नामों में उनका नाम भी अहमियत रखता है।

सीढ़ियाँ, माँ और उसका देवता की कहानियों की कथा-भूमि में एक ओर जहां रति पांडे जैसी भ्रष्ट नेता, अपूर्ण-आलोक जैसे शहरी प्रेमी, कोठी-मालिक न बन पाने वाले मनसुख, जनसम्पर्क प्रबन्धक बासित का नागर संसार है, तो दूसरी ओर ललवामी जैसी शिक्षित दलित सतवन्ती-लालचन्द, रिक्शाचालक हारुन और रामसिंह और अपनी जड़ों से उखड़कर आए विसनाथ जैसों की देहाती दुनिया है। लेकिन ये सनातन-शाश्वत मूल्यों के क्षरण पर विलाप की कहानियाँ नहीं बल्कि समाज के भीतर समानता और अस्मिता के लिए चल रहे मन्थन की कहानियाँ है।

इस संग्रह की पन्द्रह कहानियों में नई भाषा, नए प्रकार के चरित्रों और कथा-स्थितियों की प्रचूरता है। इसलिए यहाँ अन्तर्वस्तु प्रमुखता पाती है और सजावट उतनी ही है जिससे स्वाभाविकता का हनन न हो। मोरवाल का यह चौथा कथा-संग्रह है।

 

छल

पिछले डेढ़ वर्ष भागपुर राजकीय माध्यमिक पाठशाला के मुख्याध्यापक के पद पर स्थानान्तरित किए जानेवाले आठवें शख्स हैं ललवानी साहब। यदि आपको मेरे कहे पर यकीन नहीं आए तो आप कभी भी किसी भी मौसम में स्वयं इस तथ्य का पता चारदीवारी तथा दरवाजे-खि़ड़कीविहीन इस पाठशाला में जाकर लगा सकते हैं। भरोसा तो अपने इन ललवानी साहब का भी नहीं है कि कब ये अपने किसी सजातीय मन्त्री या विधायक से पौव्वा फिट कर लें, और कब इस पाठशाला में गधे के सिर से सींग की तरह फुर्र हो जाएँ। इसके बारे में वैसे भी यह किंवदन्ती मशहूर है कि विभाजन के समय पाकिस्तान से लुटे-पिटे आए आज इस देश में अपने पौव्वे के बल पर ही उन सारे सुखों का भोग कर रहें हैं, जिनकी ये भागपुर के लोग कल्पना कर सकते हैं। ललवानी साहब चाहें तो उस अकूत पैसे के बल पर भी अपना स्थानान्तरण करवा सकते हैं, जो इन्होंने इस धर्मनिरपेक्ष देश में ट्यूशन के नाम पर इस देश के भविष्य यानी निर्धन विद्यार्थियों के माता-पिताओं से प्यार से, दुलार से या फिर उनके बच्चों का भविष्य धूल में मिलाने की धमकी दे-देकर अर्जित किया है। मगर ये ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि इनका भी एक उसूल है- चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए। ललवानी साहब कुछ दिन, कुछ महीने यहां तक एकाध साल जेठ की तपती दोपहरी से भी अधिक कष्टदायक धूप में काट लेंगे किन्तु इन्होंने अपने कुछ उसूलों से कभी समझौता करना सीखा ही नहीं। इसलिए यह तय है कि इनकी सेवा के बाकी बचे तीन वर्ष का काल इस भाहपुर को भोगना ही पड़ेगा।

ललवानी साहब ने जब इसे इस पाठशाला में मुख्याध्यापक के रूप में अपना कार्यभार संभाला है, तब से उनकी महज दो माह की अल्पावधि में से पहला माह तो इस भागपुर गाँव और इस गांव की इस फटीचर पाठशाला के प्रांगण में आयोजित होनेवाली एक जनसभा की तैयारी में बीत गया, जिसको राज्य के मुख्यमन्त्री द्वारा सम्बोधित किया जाना था। कार्यभार ग्रहण करने के बाद ललवानी साहब ने सबसे पहले अपने पूर्ववर्ती अध्यापकों और मुख्याध्यापकों का बही-खाता देखा। सचमुच उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। जब उन्होंने देखा कि इस पाठशाला का अतीत न केवल अध्यापकों की दृष्टि से अपितु मुख्याध्यापकों की दृटि से भी बहुत सुनहरा रहा है। इसलिए इन्होंने भी सबसे पहला रचनात्मक कार्य यह किया कि भागपुर के मशहूर रशीद पेंटर, को जिसकी कूची से भागपुर के मशहूर ‘काजोल नागिन बैंड’ दीवारें पुती हुई हैं, इन्हीं इबारतों पर भरोसा कर पिछले दिनों एकाएक इस देश के साक्षरता के प्रतिशत में ऐसा उछाल आया कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पसीने छूटने की नौबत आ गई थी।

रशीद पेंटर अलग-अलग आकर और रंगों की डिब्बियाँ तथा कूचियाँ लेकर मुख्याध्यापक ललवानी साहब के समक्ष उपस्थित हो गया। उन्होंने कुछ अन्य हिदायतों के साथ यह हिदायत देते हुए रशीद को हरी झंडी दिखा दी कि उनकी कुर्सी के ठीक ऊपर लगे बोर्ड पर उनका नाम अपने पूर्ववर्तियों से जरा मोटा और अलग दिखना चाहिए। रशीद पेंटर गांव की पाठशाला के इस नए मुख्याध्यापक की मर्जी के मुताबिक कार्य सम्पन्न कर जाने लगा तो पीछे से मुख्याध्यापक ने टोका !‘‘ओ काके, मजूरी नहीं चाहिए ?’’
‘‘मास्टरजी, क्यों शर्मिदा करते हो। यह तो मेरा और इस भागपुर का भाग है कि आपने इस चीज को सेवा का मौक़ा दिया।’’

‘‘ओ नहीं काके, मैं फ्री में काम करवानें में बिलीव नहीं करता। मेरा यह उसूल है....ले पकड़ !’’ जेब से पाँच का नोट रशीद की ओर बढ़ाते हुए बोले ललवानी साहब।
‘‘मास्टरजी, मेरा भी उसूल है कि मैं उस्तादों से पैसे नहीं लेता। मुझे खुशी होगी अगर आपके जाने की तारीख लिखने का मौक़ा भी मुझे ही मिले।’’
‘‘तो फिर ठीक है काके। सारी पेमेंट एक साथ हो जाएगी।’’
‘‘अच्छा, मैं चलता हूँ...आदाब !’’

इतना कहकर रशीद पेंटेर ने अपना झोला उठाया और चला गया।
ललवानी साहब देर तक अपने आप से दूर होते रशीद पेंटर को देखते रहे।
अपनी कुर्सी के ऊपर टँगे बोर्ड को ललवानी साहब जब भी देखते, होंठ वक्र होते चले जाते-यह सोचकर कि जो पाठशाला अपनी डेढ़ वर्ष की अल्पावधि में पौन दर्जन मुख्याध्यापकों के दर्शन कर चुकी है, उस पाठशाला और उसके विद्यार्थियों के भविष्य तो उज्जवल होगा ही। बोर्ड पर सबसे अन्त में यानी आठवें क्रम पर अपना नाम लिखवाते समय उन्होंने रशीद पेंटर से अपना कार्यकाल समाप्त होनेवाला स्थान यह सोचकर खाली छुड़वा दिया कि पता नहीं, यहां उनका दाना-पानी कितने दिनों का है।

भागपुर ! इस महान देश के उन हज़ारों गाँव-कस्बों की तरह यह भी एक ऐसा गाँव है जिसकी हथेलियों पर उनके भाग्य रेखाएँ तो है, मगर उन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं है। आज भी यहाँ की महिलाओं को खुले में शौच जाने के लिए सूर्योंदय से पूर्व और सूर्यास्त के बाद छानेवाले झुटपुट का इन्तजार करना पड़ता है। सैंकड़ों गाँवों की तरह यहाँ की महिलाओं को भी पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध न होने की वजह से मीलों दूर से मिलने के कारण पास के क़स्बे में बने प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक जाते-जाते दम तोड़ देते हैं। यहाँ तक कि हजारों गाँवों की तरह कच्ची गलियों में सडाँध मारती गागाद में बजबजाते कीड़ों से याराना करने के अलावा इस भागपुर के पास कोई रास्ता नहीं है। अन्य ग्राम पंचायतों की तरह इसके विकास का पैसा आने से पहले कहाँ चला जाता है- यह रहस्य आज भी बना हुआ है।

इसी भागपुर में आठवें मुख्याध्यापक के रूप में नियुक्त होकर आए हैं ललवानी साहब।

राजकीय माध्यमिक पाठशाला में आयोजित होनेवाली जनसभा का प्रयोजन बताते हुए भागपुर ग्राम पंचायत के नव-निर्वाचन उत्साही युवा सरपंच द्वारा गाँव को बताया गया है कि जिस तरह इस देश का मालिक प्रधानमंत्री होता है, उसी तरह मुख्यमंत्री राज्य का मालिक होता है। इसलिए इनके स्वागत में कोई कसर नहीं होनी चाहिए। वह अपने अतिथि के सम्मान में जितनी ज़्यादा भीड़ जुटेगी, उतना ही खुश होगा। क्या पता, ख़ुश होकर इस क्षेत्र के लिए वह एक क्या तोहफ़ा दे जाए यदि वे स्वयं गाँव से बाहर निकलकर अपनी आँखों से नहीं देखते। मुख्य सड़क से भागपुर तक की लगभग तीन किलोमीटर पतली मरियल-सी सड़क पर बने छोटे-छोटे गड्ढों को, जो इससे पहले रात के अँधेरे में कई जानें ले चुके हैं, भरा जा चुका है। राज्य विद्युत बोर्ड के ही कर्मचारी लगभग नीम पागलों की-सी हालत में चकरघिन्नी बने घूम रहे हैं, जिनकी बला से इस देश के गाँवों के घरों में रोशनी हो या ना हो। यहां तक कि लोक निर्माण विभाग ने भी मुस्तैदी की मिसाल पेश करते हुए सड़क के किनारे जगह-जगह इस संकेत के अस्थायी बोर्ड गाड़ दिए- कृपया गाड़ी धीरे चलाएँ, आगे सड़क ऊँची-नीची है। राज्य के मुख्यमन्त्री इसी भागपुर की उसी राजकीय माध्यमिक पाठशाला के प्रांगण में आयोजित होनेवाली जनसभा को सम्बोधित करने आ रहे हैं, जिसमें जून की आग बरसती लू के थपेड़ों और जनवरी की हड्डियों को सुन्न कर देनेवाली हवाओं से जूझते बच्चों का पूरा दिन अपने आदरणीय गुरुओं के इन्तजार में खाली श्यामपट्टों को निहारते हुए बीत जाता है।

हालाँकि आयोजन पूरी तरह ग्राम पंचायत, भागपुर के तत्त्वावधान में होने जा रहा है लेकिन पाठशाला के मुख्याध्यापक ललवानी साहब ने कई रोज़ से रात-दिन एक हुआ है। रशीद पेंटर को एक बार फिर सेवा का मौक़ा प्रदान किया गया। पाठशाला की दीवारों पर राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत, साम्प्रदायिक को कमज़ोर करनेवाले, मनुष्यता का बल प्रदान करनेवाले और भविष्य के प्रति आशान्वित करनेवाले नारों और उक्तियों-जैसे ‘भारत माता की जय’, ‘वन्दे मातरम’, ‘शराब शरीर की आत्मा, दोनों का नाश करती है‘, ‘हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई’, ‘जियो और जीने दो’ के साथ ही पाठशाला के मुख्य द्वारपर ‘शिक्षार्थ आइए, सेवार्थ जाए’ को भी चटख रंगों में लिखना दिया गया। वैसे, इसमें से ज्यादातर उक्तियों और नारों को लिखवाने की जरूरत थी ही नहीं क्योंकि उनके लिखने या न लिखने का इस क्षेत्र बल्कि कहिए इस देश के लिए अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। कुछ समझदार लोगों को तो इन उक्तियों और नारों को पढ़कर मुख्याध्यापक ललवानी साहब की देश के प्रति इस उक्तियों और नारों को पढ़कर मुख्याध्यापक ललवानी साहब की देश के प्रति इस अगाध श्रद्धा पर तरस तो आया ही बल्कि उनकी इस मासूमियत भरी नासमझी पर हँसी भी आई।

रशीद पेंटर ने अपना काम निबटाकर ललवानी साहब से जाने के लिए इज़ाजत माँगी, मगर रशीद को बेहद आश्चर्य हुआ यह देखकर कि इस बार ललवानी साहब ने उसे मजूरी के लिए झूठे से भी नहीं रोका। रशीद पेंटर ने अलग-अलग मुद्राओं और भंगिमाओं से अपनी मंशा जाहिर भी की किन्तु पता नहीं, ललवानी साहब उसकी मंशा भाप पाए या फिर भाँपकर भी न भाँपने का ढोंग करते रहे, रशीद यह नहीं भाप पाया। उसने बहुत कोशिश की कि पानी की तरह मुक्त भाव से बहाए जा रहे इस सरकारी धन में से उसे भी कुछ हाथ लग जाए किन्तु ललवानी साहब ने रशीद पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने उसे मजूरी देने के लिए बिल्कुल नहीं टोका।

राजकीय माध्यमिक पाठशाला के मुख्याध्यापक ललवानी साहब ग्राम पंचायत भागपुर के नव-निर्वाचित उत्साही युवा सरपंच के हर दिशा निर्देश को शिरोधार्य कर, बीच-बीच में अपनी बेशकीमती सलाह भी दे डालते। कारण या मजबूरी सिर्फ़ इतनी है कि यह आयोजन उनकी उसी पाठशाला के प्रांगण में होने जा रहा है, जिस पाठशाला में आए हुए उन्हें क़ायदे से जुम्मा-जुम्मा आठ दिन भी नहीं हुए हैं। जबकि सच्चाई यह है कि वे जब भी नितान्त अकेले में होते, तभी अपने परम पिता परमेश्वर श्री-श्री 1008 झूलेलाल का स्मरण कर, उससे शिकायत करते कि आखिर उनका अपराध इतना बड़ा तो नहीं था जिसके लिए उन्हें इस कालेपानी में फेंक दिया गया।
काला पानी !

जी हाँ, इस देश के ऐसे अभावग्रस्त क्षेत्रों में स्थानान्तरित होकर आनेवाले हर कर्मचारी के लिए, जिसका कि जन्मसिद्ध अधिकार सिर्फ़ शहरों में रहने का होता है, ये क्षेत्र काला पानी ही होते हैं। गाँव या ऐसे क्षेत्रों का नाम सुनते ही पहले तो वे अहा, ग्राम्य जीवन को सर्पीली पगडंडियों पर सरपट दौड़ने को लालायित रहते हैं, मगर जब सचमुच उन्हें यहाँ की सेवा का मौका दिया जाता है तब उन्हें दिखाई देती हैं ग्राम जीवन की वे दुश्वारियाँ, जिन्हें हमारे प्रिय कवि अपनी कविताओं में हुमक-हुमककर वर्णित करते रहते हैं। ललवानी साहब ने जब इस भागपुर को पहली बार देखा था, तब वे कई दिनों तक सोचते रहे कि आखिर अहा ! ग्राम्य जीवन को आज पाठ्य पुस्तकों में लगने का औचित्य क्या है ?
कई दिनों तक परेशान रहे थे वे इस ग्राम्य जीवन की मुश्किलों को देख- देखकर। शायद यही वजह हैं,

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